देश के कुल 46 केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना देश के युवाओं को कम खर्च में बेहतर शिक्षा देने के उद्देश्य से किया गया। संख्या की दृष्टि से भारत विश्वविद्यालयों के मामले में अमेरिका और चीन के बाद दूसरे नंबर पर आता है। हालांकि जहां तक गुणवत्ता का सवाल है भारतीय विश्वविद्यालय पिछड़े साबित होते रहे हैं। दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। कभी कभार अगर नाम आता भी है तो कुछ समय फिर गायब हो जाता है। भारत में शिक्षा की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां पर 10 छात्रों में मात्र 1 छात्र ही कॉलेज पहुंच पाता है।
देश में उच्च शिक्षा में जाने वाले छात्रों की
संख्या काफी कम है। यह मात्र 11 फीसदी है। इसके कई कारण हो सकते हैं। बता दें कि
हाल ही में नैसकॉम और मैकिन्से के शोध में पता चला है कि मानविकी स्ट्रीम में 10
में से 1 और इंजीनियरिंग में 4 में से 1 छात्र ही नौकरी पाने के योग्य होते हैं।
ऐसे में भारत की शिक्षा व्यवस्था (खासकर उच्च शिक्षा) सवालों के घेरे में आ
जाती है।
रिपोर्ट के मुताबिक भारत के 90 फीसदी से ज्यादा कॉलेज और 70 फीसदी
विश्वविद्यालयों का स्तर अत्यंत ही कमजोर स्थिति में है। यदि सरकार इन
विश्वविद्यालयों के स्तर को ऊपर उठाना भी चाहे तो सरकार को बड़े पैमाने पर खर्च
करना पड़ेगा। विश्वविद्यालयों की इस स्थिति की वजह से बांकी के अच्छे संस्थानों
में बच्चों में प्रवेश पाने को होड़ मच जाती है।
दिल्ली के श्रीराम कॉलेज ऑफ कामर्स
के बीकॉम ऑनर्स कोर्स में दाखिला के लिए मार्क्स कटऑफ 99 फीसदी या उससे भी
अधिक तक जाता है। इस वजह से कई छात्र अपने सेकेंड्री स्कूल में अच्छे अंक लाने
के लिए दबाव महसूस करते हैं और कई छात्र इस दबाव की वजह से आत्महत्या तक कर लेते
हैं।
कई छात्र अपने स्तर को बढ़ाने के लिए, अच्छी शिक्षा पाने के लिए विदेशी
विश्वविद्यालय में जाते हैं। वहां पर वे हर साल 43 हजार करोड़ रूपए खर्च करते हैं।
ऐसा इसलिए है क्योंकि अगर भारत में विश्वविद्यालयी गुणवत्ता सही होती तो उन्हें
बाहर नहीं जाना पड़ता। शिक्षा का महत्व इतना है कि भारत में शिक्षा क्षेत्र की
बड़ी शख्सियत सैम पित्रोदा का कहना है कि “आजकल वैश्विक अर्थव्यवस्था, विकास, धन उत्पत्ति और संपन्नता की संचालक शक्ति सिर्फ शिक्षा को ही कहा जा सकता
है।”
उच्च शिक्षा पर बोलते हुए इन्फोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति कहते हैं कि
अपनी शिक्षा प्रणाली की बदौलत ही अमेरिका ने आज सेमी कंडक्टर, सूचना तकनीक जैसे
क्षेत्रों में महारत हासिल की है। शिक्षा का उनकी तरक्की में बड़ा हाथ है। भारतीय
विश्विविद्यालय का एक काला सच यह भी है कि दुनिया के विश्विविद्यालयों में हुए शोध
कार्यों में महज 3 फीसदी हिस्सा भारत का है।
यह काफी डरावना है। इस भयावह स्थिति
के लिए सरकार और कुलपति दोनों ही दोषी हैं। कुलपतियों ने सरकारी मुलाजिम और नेताओं के
साथ मिलकर खूब बंदरबांट की है और विश्विविद्यालयी जैसी संस्था को पंगू बना दिया
है। आज देश में मौजूद कई विश्विविद्यालय जिनका कभी विश्व में नाम हुआ करता था
आर्थिक तंगी और बदहाली के दौर से गुजर रहे हैं।
सरकार रोज नए विश्विविद्यालय की
स्थापना कर रही है लेकिन स्थापित विश्वविद्यालय की स्थिति में सुधार से अपनी मुह
फेर ले रही है। यदि सरकार पुराने विश्विविद्यालय को ही सिर्फ अपडेट कर दे तो कितने
ही छात्रों के भविष्य को नए पंख लग जाएंगे। नए विश्विविद्यालयों की स्थापना की
जरूरत ही नहीं पड़ेगी। यहां पर हमारा तात्पर्य यह बिलकुल नहीं है कि सरकार नए
विश्विविद्यालय की स्थापना न करे लेकिन पुराने विश्विविद्यालय को भी समान रूप से
देखे।
भारत के विश्विविद्यालयों में कई विश्विविद्यालय ऐसे भी है जहां पर पिछले 30
सालों में उनके पाठ्यक्रम में कोई बदलाव ही नहीं हुआ है। शिक्षक भी उसी पुराने
ढर्रे पर पढ़ा हैं जबकि तकनीक और उद्योग इस मामले में काफी आगे निकल गए हैं। लिहाजा सरकार को इस ओर ध्यान देने की शख्त जरूरत है। यदि समय रहते सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया
तो जल्द ही बचे हुए विश्विविद्यालयों की स्थिति एक जैसी हो जाएगी।
कई बार सरकार
जोर देती है कि शिक्षा का निजीकरण कर देना चाहिए। लेकिन यह सवालों के घेरे में है।
जाने माने शिक्षाविद प्रोफेसर यशपाल निजीकरण पर कहते है कि “शिक्षा में निजीकरण की आवश्यकता तो है” लेकिन वो चिंता जाहिर करते हुए कहते हैं कि “कहीं ऐसा न हो कि पहले शिक्षा के क्षेत्र में निवेश करने वाली संस्था का
कोई व्यक्ति कुलपति बने और फिर अपने 25 साल के लड़के को विश्वविद्यालय का कुलपति
बनाए।”
मतलब साफ है कि अगर निजी कंपनी या व्यक्ति विश्विविद्यालय में निवेश करेंगे
तो ऐसा संभव है कि वो अपने लोगों को ही कुलपति बनाये। ऐसा होने से शिक्षा में धांधली
और गुणवत्ता में गिरावट वर्तमान समय से भी अधिक हो जाएगी। यह स्थिति चिंताजनक होगी
और आज के स्वास्थ्य क्षेत्र की स्थिति जैसी ही होगी जहां पर सरकार की कोई लगाम
नहीं होगी, लोग अपनी मर्जी से जनता को लूटेंगे।
कमोबेश ऐसी ही स्थिति हमारे निजी
स्कूलों की अभी है। आज के समय में निजी स्कूल अभिभावकों से खूब पैसों की लूट कर
रहे हैं। यूकेजी और एलकेजी में पढ़ने वाले बच्चों की बैग सिर्फ किताबों और कॉपियों
से भरी होती है। बच्चों के बैग का वजन बच्चे के वजन से ज्यादा होता है। कई किताबें
सिर्फ पैसे कमाने के लिए स्कूलों द्वारा मुहैया कराये जाते हैं। उनका कोर्स से कोई
लेना-देना नहीं होता है। किताबें बांटने के नाम पर स्कूल खूब मनमानी करते हैं।
कई
बार अभिभावकों द्वारा स्कूल के इस मनमानी के खिलाफ आवाज भी उठाने की कोशिश की गई लेकिन इन
स्कूलों के आका की पहुंच इतनी अधिक है कि कोई भी इसके खिलाफ एक्शन लेने बचता
है। यदि उच्च शिक्षा में भी निजी हाथों को ज्यादा तवज्जो दी गई तो निश्चित ही वहां
की स्थिति भी स्कूलों की तरह ही होगी। तब हालात न तो सरकार के हाथों में होगी न ही
अभिभावकों के हाथ में। सोचिये यदि ऐसा होगा तो आप अपने बच्चों कहां भेजेंगे पढ़ने
के लिए?
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